मंगलवार, 24 मई 2011

शिक्षा का अधिकार : age appropriate learning

पिछले साल पूरे देश में अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हो गया है | देर सवेर ही सही इस कानून के प्रावधानों को लागू करने की तैयारियां चल रही हैं | अब ६ से १४ साल की उम्र के सभी बच्चों को स्कूल में दाखिल करके उन्हें quality education देनी होगी | इस आयु वर्ग में एक बड़ी तादाद उन बच्चों की है जो या तो कभी स्कूल गए ही नहीं या फिर वे कुछ दिन स्कूल जाने के बाद Drop out हो गए थे | कानून का एक प्रावधान यह भी है कि ऐसे बच्चों को उनकी ड्रॉप आउट क्लास में ना बैठा कर बल्कि उनकी उम्र के मुताबिक कक्षा में दाखिला देना होगा और और विशेष शिक्षण प्रक्रियाएं अपना कर उन्हें अपेक्षित कक्षा के स्तर तक लाना होगा | उदाहरण के लिए यदि कोई बच्चा १३ साल का है और वह सुरुआती १-२ जमात में ही ड्रॉप आउट है तो उसे उसकी उम्र के अनुसार सातवीं कक्षा में  भर्ती करना होगा| इन बच्चो कि स्थिति पर गौर करे तो ये बच्चे -

  • स्कूलित  बच्चों से इनकी मेंटल एज ज्यादा होती है | जीवन के संघर्ष से गुजरने के कारण इनका अनुभव संसार समृद्ध होता है |
  • अधिकतर बच्चे किशोरावस्था के हैं, सीखने कि गति तेज होती है |
  • ये बच्चे अपनी वंचितता की स्थितियों के रहते स्कूल से नहीं जुड़ पाए |
  • कहीं ना कहीं ये बच्चे टीचर के असम्वेदनशील व्यवहार व पाठ्यक्रम की विषयवस्तु के उनकी जिंदगी से विसंगति होने के कारण शिक्षा की व्यवस्था से छिटक जाते हैं |

इन बच्चों के साथ काम करने से पहले हमें इन बातों पर गहराई से समझ लेना होगा | KGBV(कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों ) की लड़कियों के साथ काम करने का मेरा अनुभव रहा है जहाँ इसी प्रकार की लड़कियाँ आती हैं जो कि वंचित वर्ग की होती हैं| इनमे कक्षा 6, 7, व 8 में प्रवेश लेने वाली लड़कियाँ   ‘ड्रॉप आउट’ वाली होती हैं | ये लगभग सभी अपनी कक्षा के शैक्षणिक स्तर पर नहीं होती हैं | इनमें ज्यादातर पढ़ने - लिखने की और जोड़ बाकी की बुनियादी दक्षताओं पर भी नहीं होती हैं | इस प्रकार के बच्चे जब age appropriate class में दाखिल होते हैं तो शिक्षक के पास एक मात्र वही पुस्तक होती है जो अपेक्षित कक्षा के लिए अधिकृत कर रखी होती है | टीचर उसी किताब को लेकर चलता है | ये बच्चे शिक्षण प्रक्रिया से जुड़ नहीं पाते है | जब बच्चे पढ़ना ही नहीं जानते तो पाठ्य-पुस्तक की अवधारणाओं को कैसे समझ पाएंगे? परिणाम स्वरूप ऐसे बच्चे आठवी जमात तक पहुँच जाते है लेकिन पढ़ना नहीं सीख पाते हैं|

इन बच्चो को शीघ्रता से बुनियादी दक्षताओं पर लाने के लिए जो चर्चा या प्रयास चल रहे हैं उसमे दो तरह के मत हैं|

  1. राज्य स्तर पर एक condensed course का पाठ्यक्रम तैयार किया जाये जिसके माध्यम से शिक्षक बच्चों को बुनियादी दक्षताओं तक ले जाये |
  2. टीचर को विशेष प्रशिक्षण मिले जिसमे उसे इस प्रकार के बच्चों को सिखाने के तरीकों से परिचित कराया जाये और उसे multiple text   का शिक्षण में प्रयोग  तमीज़ आए |

उपर्युक्त दोनों ही विचारों के समर्थकों के अपने-अपने तर्क हैं | जो condensed course के पाठ्यक्रम के पक्ष में हैं उनकी दलील यह है कि जब आप बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं तो फिर आपके हाथ में कुछ ठोस होना चाहिए | दूसरे मत के समर्थक टीचर की स्वतंत्रता और उसकी सृजनशीलता और उसकी दक्षताओं व संभावनाओं पर भरोसा करते है | यह भी टेस्टेड है | शिक्षाकर्मी स्कूलों में दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में जहाँ कोई टीचर उपलब्ध नहीं था | वहीं गांव के ही आठवीं- दसवीं पढ़े युवक - युवतियों सतत प्रशिक्षण देकर काबिल टीचर बनाया | यहाँ उनकी क्षमताओं पर भरोसा किया गया |

खैर मोड्यूल कोई भी अपनाया जाये लेकिल वह सफल तब तक नहीं होगा जब तक कि शुरू में ज़िक्र की  गयी बातों का ध्यान नहीं रखा जाता है |  बच्चो के ड्रॉप आउट का एक बड़ा कारण यह भी है कि बच्चे पाठ्य वस्तु से खुद को जोड़ नहीं पाते क्योकि पुस्तक में जिन चीजों का ज़िक्र होता है वह उनकी दुनिया की नहीं होती हैं | अत: राजस्थान के दूरस्थ रेगिस्तानी व आदिवासी अंचल को ध्यान रखते हुए सोचिए कि मछली जल की रानी है … कितना प्रासंगिक है ? कमल, यज्ञ, षटकोण, अनार शब्द कितने उचित हैं | अनार की उपलब्धता पर भी गौर करें | ये सभी बच्चे अपनी स्थनीय बोली में बात करते हैं | यह ध्यान देने कि बात है कि इन बच्चों के साथ भाषा शिक्षण कि शुरुआत किस भाषा में की जाये ? दरअसल अन्ततोगत्वा हमें सिखानी हिंदी ही है लेकिन उनकी स्थानीय बोली का आदर करते हुए चलना होगा | इसका तरीका यह है कि राजस्थानी और हिंदी में में सैकड़ों ऐसे शब्द है जो दोनों भाषाओँ में एक जैसे ही हैं | इनमे मुख्यता रिश्तों के नाम हैं मामा –मामी ,दादा-दादी, चाचा-चाची इत्यादि किशोर उम्र के साथ रिश्तों पर बात करना सबसे सही मुद्दा है जिससे वे जुड़ सकते हैं | क्योकि वे इन्हीं रिश्तों के पॉवर स्ट्रेचर से झूझ रहे होते है या कुछ रिश्तों पर बात करते हुए उन्हें खुद ऊर्जा का अहसास होता है | दूसरे शिक्षण प्रक्रियाएं निर्धारित करते हुए बचकानी कविताओं और प्यासा कौआ तथा कछुआ - खरगोश दौड़ जैसी बचकानी चीजों से बचना चाहिए | उनकी मेंटल एज को देखें | वे समझदार व्यक्ति हैं उनकी समझ से शुरू कीजिए | वे सोचते समझते है , उन पर भरोसा करना होगा | उनकी इर्द-गिर्द  की दुनिया को शिक्षण में लाना होगा  और मान देना होगा | 

3 टिप्‍पणियां:

anindita ने कहा…

dalip itoo am in the sameboat . Condensed course ko transact karna an chahiye. For this tecaher need to go through a special training that will expose them to creative pedagogy i think prayas iand 2 as you have mentioned are nor really do mat but complementing each other . it is acollective strategy.

Yes the words like kamal and anar and yagna are irrelevent . in rajasthans context. but as far as the tribal region is concerned , they are not so remote from the concept of fish specially udaipur , dungarpur , banswara even baran . so why this excess aversion about fist
i still fail to comprehend

Dalip Vairagi दलीप वैरागी ने कहा…

अनिंदिता जी मैं आपकी बात से पूरी असहमति नहीं रखता | आपने जिन जिलों के बारे में कहा है, क्या वहाँ मछली उसी तरह जीवन और संस्कृति का हिस्सा है ? क्या यहाँ सामाजिक रस्मों में मछली का स्थान उसी तरह जिस तरह बंगाल या उडीसा में है ? क्या यहाँ भी उसी तरह मछली के हाट बाज़ार लगते हैं | अनिंदिता जी ओस की बूंद दिखाकर प्यास नहीं बुझाई जा सकती है | परिचित होने का मेरा मतलब जीवन का अभिन्न हिस्सा होना है | मोबाइल शब्द ज्यादा नजदीक है उनके बनिस्पत मछली के | शिक्षण में ऐसे शब्दों के इस्तेमाल का आग्रह है कि वो ऐसे हो जो उनकी जिंदगी में घी-शक्कर की तरह रचे बसे हों | भरा समुन्दर गोपी चंदर बोल मेरी मछली कितना पानी... जब छोटे बच्चे गाते है तो इसकी संगीतात्मकता तो उनको लुभाती है मगर कविता का कंटेंट उनके लिए महज नॉनसेन्स पोएम भर ही होता है | लेकिन जब हम अर्थ या समझ से शुरू करने की बात करते हैं तो राजस्थान के किशोरों के सामने समुन्दर अपनी विराटता के साथ सम्पूर्ण अर्थ में गलबहियां डालने को प्रस्तुत नहीं होता है | सीखते उन्हीं शब्दों से हैं जो भावनात्मक ऊष्मा देते हैं |

anindita ने कहा…

i understand what you are saying- the words and their world view need to be integral to their culture and life .isme to dorahe nahi hain . but at the same time there is no harm in simultaneously widening their horizons . dont we do the same for our children. constantly dont we go back and forth between their known to the wider unknown. . samundar apni viratta se gal baqhiyan nahi karega i agree but what need sto be done is give them an exposure tour of what samundar is . this is where exposure trips have their relevance .