बुधवार, 25 मई 2011

यहाँ सवाल तो टीचर ही पूछता है

उन दिनों मैं टोंक ज़िले (राजस्थान) के  कुछ सरकारी स्कूलों के साथ काम कर रहा था | बच्चों व टीचर के साथ काम करने का बिलकुल भी अनुभव नहीं था | थोड़ा बहुत रंगमंच का अनुभव ज़रूर था | इसी के बूते स्कूल में पाँव रखने की हिम्मत कर सका | और कुछ नहीं तो बच्चों के साथ मस्ती करेंगे | काम करते - करते सीख जायेंगे | यूँ तो हमें कक्षा १ से ५ तक के लिए काम करना होता था लेकिन जिन स्कूलों में जाते थे वे अधिकतर उच्च प्राथमिक स्तर (कक्षा ६ - ८ ) के होते थे | ये बच्चे हमारे टारगेट ग्रुप में नहीं थे | जब हम छोटी कक्षाओं के साथ गतिविधियां करते तो ये बड़ी कक्षाओं के बच्चे भी हमें अपनी कक्षाओं में बुलाते | अकसर हम उनकी कक्षाओं में जाने से कतराते  | एक कारण तो मैंने ऊपर बता दिया दूसरा संकोच यह था कि कक्षा ६-८ को पढाने की खुद की हैसियत भी नहीं समझते थे | कभी इन कक्षाओं में झाँकने का होसला ही नहीं बना | एक बार कुछ ऐसा हुआ कि मैं स्कूल के बरामदे से गुजर रहा था,  इतने में ही कक्षा आठ के बच्चे आए और जबरन मेरा हाथ पकड़ कर अपनी क्लास में ले गए | “सर हमें भी पढ़ाओ|” मैंने उन्हें साफ-साफ कह दिया , “मुझे कक्षा ८ को पढाना बिलकुल नहीं आता है |” वे बोले “आप तो बस कुछ भी पढ़ा दो |”

“क्या पढ़ाऊ ?”

“कुछ भी |”

मैं उनकी किताबें लेकर उलट-पलट कर देखने लगा | हिंदी, गणित,सामाजिक, संस्कृत, विज्ञान … वही पहचाने-पहचाने से विषय,  भूले बिसरे टॉपिक और विस्मृत-सी अवधारणाएँ … मैं अभी जमा खर्च को समेट ही रहा था और कोई रास्ता निकाल ही रहा था,  इतने में एक विचार मेरे मन में कौंधा !  मैंने उनसे कहा “आप सवाल पूछो और मैं उनके जवाब देने की कोशिश करूँगा | जवाब नहीं आया तो मिल कर पता करेंगे |”  यह कहते ही बच्चों ने मुझ पर सवालों की बोछार कर दी |

भारत में कितने राज्य है ?

राजस्थान में कुल कितने जिले है ?

सबसे ऊँची इमारत किस देश में है ?

सबसे बड़ा …

सबसे छोटा…

सबसे पुराना …  जाने क्या-क्या ?

कुछ के जवाब मुझे पता थे कुछ के नहीं |  जिनके जवाब मैं नहीं दे सका उनके जवाब झट से पूछने वाले ने दे दिए | ऐसा कोई सवाल नहीं था जिनके मतलब बच्चों को पता नहीं थे |  उन्होंने सवाल और उनके जवाब कंठस्थ कर रखे थे | मैंने बच्चों से कहा,  “ आपने सवाल क्यों पूछे ?”  बच्चों ने कहा कि आपने पूछने के लिए कहा इसलिए पूछे | मैंने कहा ‘ सिर्फ पूछने के लिए ?’  उन्होंने हाँ कहा | मैंने फिर पूछा “ आप अपने टीचर से सवाल पूछते हैं क्या ?”  वे मेरी बात पर हँसे फिर बोले “ सवाल तो टीचर हमसे पूछता है, हम नहीं !”  मैंने बात को आगे बढ़ाया “ अब तक आपने मुझ से वे सवाल पूछे जिनके जवाब आपको पहले से पता थे , अब आप ऐसे सवाल पूछे जिनके जवाब आपको पता नहीं है लेकिन जानना चाहते हैं |”  सब बच्चे चुप | भला ऐसा भी होता है क्या ! जैसा भाव उनके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रहा था | यह बात उनको समझाने में मुझे बहुत जोर लगाना पड़ा कि आपके कुछ मौलिक सवाल हैं उनको पूछिए | मैंने उनको कहा कि रोज दिन आपके दिमाग में कुछ सवाल उठते रहते हैं लेकिन हम उनको तवज्जो नहीं देते हैं तथा संकोच के कारण भी नहीं पूछते हैं | या कभी पूछा भी लेकिन सही रेस्पोंस नहीं मिला |  मैंने एक दो उधाह्र्ण भी बताया | थोड़ा समय लगा लेकिन बच्चों के सवाल आने लगे | यह धारा अभी सूखी नहीं |

हवा क्यों चलती है ?

भगवान किसने बनाया ?

सबसे पहला मास्टर कौन था ?

सबसे पहला डॉक्टर कौन था ?

जाति  किसने बनाई ?

विश्व युद्ध क्या है ?

चुनाव क्यों होते हैं ?

धरती कैसे बनी ?

इस तरह के लगभग २५ सवाल आये | कुछ सवाल आपको वाहियात भी लग सकते हैं | यहाँ भी कुछ ऐसे सवाल थे जिनका जवाब मेरे पास नहीं था | शायद आपके पास …|  जवाब नहीं है इस से सवाल की अहमियत कम नहीं होती | इस बार अपने अज्ञान को लेकर मुझे भी हीनता बोध नहीं हुआ  बल्कि ताकत मिली कि इस मामले में हम टीचर- विद्यार्थी एक बराबर  है | दोनों की जरूरतें एक सामान हैं | दोनों ही जानना चाहते हैं | हमने तय किया कि हम सारे सवालों पर आगे के दिनों में खूब बातचीत करेंगे और जवाबों तक पहुँच कर रहेंगे | मैंने गौर किया कि सभी सवाल उनकी किसी ना किसी किताब के टॉपिक से मेल खाते थे | अगर इन टॉपिक को पढाने का entry point  टीचर इन सवालो को बनाये तो बच्चे आसानी से विषय से जुड़ते हैं | क्योंकि जानने की इच्छा उनकी खुद की है | किताब के सारे पाठ उनकी सहज जिज्ञासाओं और सवालों कि जद में आते है |  बशर्ते उनकी जिज्ञासाओं व सवालों को प्रकट करने के मौके उनको मिलें |  उनको यह भरोसा भी मिले कि सवाल पूछना वर्जित नहीं है | इन सवालों के मार्फत उनको किताब के सारे टॉपिक खुद से जुड़े जान पड़ेंगे | अन्यथा इनके नीरस होने में कोई कसर नहीं है | यह एक दिन की गतिविधि मात्र नहीं होनी चाहिए सवाल पूछने के ऐसे अवसर और अभ्यास बार-बार देने होंगे | तब जाकर यह मिथक टूटेगा कि सवाल पूछना तो टीचर का काम है |

मंगलवार, 24 मई 2011

शिक्षा का अधिकार : age appropriate learning

पिछले साल पूरे देश में अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हो गया है | देर सवेर ही सही इस कानून के प्रावधानों को लागू करने की तैयारियां चल रही हैं | अब ६ से १४ साल की उम्र के सभी बच्चों को स्कूल में दाखिल करके उन्हें quality education देनी होगी | इस आयु वर्ग में एक बड़ी तादाद उन बच्चों की है जो या तो कभी स्कूल गए ही नहीं या फिर वे कुछ दिन स्कूल जाने के बाद Drop out हो गए थे | कानून का एक प्रावधान यह भी है कि ऐसे बच्चों को उनकी ड्रॉप आउट क्लास में ना बैठा कर बल्कि उनकी उम्र के मुताबिक कक्षा में दाखिला देना होगा और और विशेष शिक्षण प्रक्रियाएं अपना कर उन्हें अपेक्षित कक्षा के स्तर तक लाना होगा | उदाहरण के लिए यदि कोई बच्चा १३ साल का है और वह सुरुआती १-२ जमात में ही ड्रॉप आउट है तो उसे उसकी उम्र के अनुसार सातवीं कक्षा में  भर्ती करना होगा| इन बच्चो कि स्थिति पर गौर करे तो ये बच्चे -

  • स्कूलित  बच्चों से इनकी मेंटल एज ज्यादा होती है | जीवन के संघर्ष से गुजरने के कारण इनका अनुभव संसार समृद्ध होता है |
  • अधिकतर बच्चे किशोरावस्था के हैं, सीखने कि गति तेज होती है |
  • ये बच्चे अपनी वंचितता की स्थितियों के रहते स्कूल से नहीं जुड़ पाए |
  • कहीं ना कहीं ये बच्चे टीचर के असम्वेदनशील व्यवहार व पाठ्यक्रम की विषयवस्तु के उनकी जिंदगी से विसंगति होने के कारण शिक्षा की व्यवस्था से छिटक जाते हैं |

इन बच्चों के साथ काम करने से पहले हमें इन बातों पर गहराई से समझ लेना होगा | KGBV(कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों ) की लड़कियों के साथ काम करने का मेरा अनुभव रहा है जहाँ इसी प्रकार की लड़कियाँ आती हैं जो कि वंचित वर्ग की होती हैं| इनमे कक्षा 6, 7, व 8 में प्रवेश लेने वाली लड़कियाँ   ‘ड्रॉप आउट’ वाली होती हैं | ये लगभग सभी अपनी कक्षा के शैक्षणिक स्तर पर नहीं होती हैं | इनमें ज्यादातर पढ़ने - लिखने की और जोड़ बाकी की बुनियादी दक्षताओं पर भी नहीं होती हैं | इस प्रकार के बच्चे जब age appropriate class में दाखिल होते हैं तो शिक्षक के पास एक मात्र वही पुस्तक होती है जो अपेक्षित कक्षा के लिए अधिकृत कर रखी होती है | टीचर उसी किताब को लेकर चलता है | ये बच्चे शिक्षण प्रक्रिया से जुड़ नहीं पाते है | जब बच्चे पढ़ना ही नहीं जानते तो पाठ्य-पुस्तक की अवधारणाओं को कैसे समझ पाएंगे? परिणाम स्वरूप ऐसे बच्चे आठवी जमात तक पहुँच जाते है लेकिन पढ़ना नहीं सीख पाते हैं|

इन बच्चो को शीघ्रता से बुनियादी दक्षताओं पर लाने के लिए जो चर्चा या प्रयास चल रहे हैं उसमे दो तरह के मत हैं|

  1. राज्य स्तर पर एक condensed course का पाठ्यक्रम तैयार किया जाये जिसके माध्यम से शिक्षक बच्चों को बुनियादी दक्षताओं तक ले जाये |
  2. टीचर को विशेष प्रशिक्षण मिले जिसमे उसे इस प्रकार के बच्चों को सिखाने के तरीकों से परिचित कराया जाये और उसे multiple text   का शिक्षण में प्रयोग  तमीज़ आए |

उपर्युक्त दोनों ही विचारों के समर्थकों के अपने-अपने तर्क हैं | जो condensed course के पाठ्यक्रम के पक्ष में हैं उनकी दलील यह है कि जब आप बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं तो फिर आपके हाथ में कुछ ठोस होना चाहिए | दूसरे मत के समर्थक टीचर की स्वतंत्रता और उसकी सृजनशीलता और उसकी दक्षताओं व संभावनाओं पर भरोसा करते है | यह भी टेस्टेड है | शिक्षाकर्मी स्कूलों में दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में जहाँ कोई टीचर उपलब्ध नहीं था | वहीं गांव के ही आठवीं- दसवीं पढ़े युवक - युवतियों सतत प्रशिक्षण देकर काबिल टीचर बनाया | यहाँ उनकी क्षमताओं पर भरोसा किया गया |

खैर मोड्यूल कोई भी अपनाया जाये लेकिल वह सफल तब तक नहीं होगा जब तक कि शुरू में ज़िक्र की  गयी बातों का ध्यान नहीं रखा जाता है |  बच्चो के ड्रॉप आउट का एक बड़ा कारण यह भी है कि बच्चे पाठ्य वस्तु से खुद को जोड़ नहीं पाते क्योकि पुस्तक में जिन चीजों का ज़िक्र होता है वह उनकी दुनिया की नहीं होती हैं | अत: राजस्थान के दूरस्थ रेगिस्तानी व आदिवासी अंचल को ध्यान रखते हुए सोचिए कि मछली जल की रानी है … कितना प्रासंगिक है ? कमल, यज्ञ, षटकोण, अनार शब्द कितने उचित हैं | अनार की उपलब्धता पर भी गौर करें | ये सभी बच्चे अपनी स्थनीय बोली में बात करते हैं | यह ध्यान देने कि बात है कि इन बच्चों के साथ भाषा शिक्षण कि शुरुआत किस भाषा में की जाये ? दरअसल अन्ततोगत्वा हमें सिखानी हिंदी ही है लेकिन उनकी स्थानीय बोली का आदर करते हुए चलना होगा | इसका तरीका यह है कि राजस्थानी और हिंदी में में सैकड़ों ऐसे शब्द है जो दोनों भाषाओँ में एक जैसे ही हैं | इनमे मुख्यता रिश्तों के नाम हैं मामा –मामी ,दादा-दादी, चाचा-चाची इत्यादि किशोर उम्र के साथ रिश्तों पर बात करना सबसे सही मुद्दा है जिससे वे जुड़ सकते हैं | क्योकि वे इन्हीं रिश्तों के पॉवर स्ट्रेचर से झूझ रहे होते है या कुछ रिश्तों पर बात करते हुए उन्हें खुद ऊर्जा का अहसास होता है | दूसरे शिक्षण प्रक्रियाएं निर्धारित करते हुए बचकानी कविताओं और प्यासा कौआ तथा कछुआ - खरगोश दौड़ जैसी बचकानी चीजों से बचना चाहिए | उनकी मेंटल एज को देखें | वे समझदार व्यक्ति हैं उनकी समझ से शुरू कीजिए | वे सोचते समझते है , उन पर भरोसा करना होगा | उनकी इर्द-गिर्द  की दुनिया को शिक्षण में लाना होगा  और मान देना होगा | 

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

एक रोडवेज कंडेक्टर की अन्नागिरी

यह सर्दियों की एक शाम थी |मैं राजस्थान रोडवेज की लो फ्लोर बस से सिंधी कैंप जा रहा था | बस लगभग भरी हुई थी | रस्ते में रामबाग सर्किल से एक पुलिस वाला बस में चढ़ा | यहाँ राजस्थान में यह आम बात है कि पुलिसवाले बिना टिकट ही यात्रा करते हैं | यह बात इतनी आम है कि कंडक्टर भी उनसे टिकट नहीं मांगते हैं | कंडक्टर गैलरी में टिकट काट रहा था और मैं सोच रहा था कि कंडेक्टर आगे बढ़ जायेगा | कंडेक्टर ने ये क्या कर दिया " टिकट प्लीज़ ' पुलिसवाले से टिकट मांग लिया ! बकायदा | पुलिस वाले ने अन्देखा कर दिया | हमने सोचा कंडेक्टर अब समझ गया होगा कि इन तिलों में तेल नहीं है | कंडेक्टर २५ साल का युवक , शायद दो महीने पहले ही नौकरी लगी हो |क्यों कि सरकार ने दो महीने पहले ही लो फ्लोर चलाई थीं | कंडेक्टर ने फिर कहा " मैं आपसे कह रहा हू साहब| " "हमारा टिकट नहीं लगता |" पुलिसवाले ने अधिकारपूर्ण लहजे में कहा | "बस में बैठे हो तो टिकट लो " कंडेक्टर ने जिद पकड़ ली | पुलिसवाला बोला ," तुम ऐसा करो कि अपने मैनेजर से कहो कि वो हमारे बड़े साब से बात करे तब हम टिकट ले लेंगे " कंडेक्टर की आवाज़ में गर्मी आ गयी ,"न मैं तम्हे जनता हू और न तुम्हारे बड़े साब को मैं तो यह जनता हूँ कि मेरी ड्यूटी क्या है ; तूम टिकट लेटे हो कि नहीं?" पुलिसवाले ने धोंस जमाई, " तम्हें नहीं पता तुम क्या कर रहे हो ?" कंडेक्टर बोला " यह.... मेरा नाम है , यह...... मेरा मोबइल नम्बर है और सांगानेर में रहता हूँ , तुम्हे जो करना है कर लेना फ़िलहाल बस से नीचे उतरो " ड्राइवर को कह कर बस रुकवा दी |शायद पुलिसवाला इस बात की उम्मीद नहीं कर रहा था | इतने में बाकी लोगों का भी कर्तव्यबोध जागा और अब कंडेक्टर की आवाज अकेली नहीं थी | बाकी का काम लोगों ने कर दिया और ठेलते हुए सिपाही को निकास द्वार के ठीक सामने ला दिया | अब उतरना लाजमी था | उस वक़्त उस कंडेक्टर के काम से मैं अपने को बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा था |आज जब मै भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे कि मुहीम को देख रहा हू तो उस कंडेक्टर के लिए मेरे दिल में इज्जत और बढ़ गई है | अन्ना जहाँ देश को रीढ़ से दुरुस्त करने में लगे है वही यह युवक सबसे नीचे कि कड़ी को ठीक करने में लगा है| मुझे वह अन्ना का भविष्य का संस्करण लग रहा है |

रविवार, 27 मार्च 2011

एक चीज़ जो नहीं बदली

एक चीज़ जो नहीं बदली
दोपहर में अचानक शोर हुआ ‘आग लग गई’ | मैं शोर की दिशा में दौड़ा | जाकर देखा पीरू का छप्पर धू –धू कर जल रहा था | लगभग पूरा गांव वहाँ इकट्ठा था | लोग पीरू के छप्पर की तरफ दौड़े जा रहे थे | किसी के हाथ बाल्टी, किसी के मटकी थी | कोई खेत से आ रहा था कोई कोई घर से और कोई स्कूल से | पीरू का घर हरिजन मोहल्ले में है | पीरू छप्पर में ही था | गांव के एक युवक की नजर पड़ी | उसने भाग कर चारपाई पर लेटे पीरू को उठाकर बाहर लाया | लोगों को आवाज लगाई | पीरू इन दिनों चारपाई पकड़ चुका है | किसी समय पीरू गांव का हरकारा हुआ करता था | बुलंद आवाज़ , गांव के एक कोने से खड़े होकर होका लगाये तो पास के गांव तक आवाज जाती थी | अवसर कोई भी हो ; चाहे राशन का सामान वितरण की सूचना हो ,शोर्ट नोटिस पर बुलाई गांव की बैठक हो या फिर आकस्मिक रूप से घटी कोई विपत्ति की सूचना हो पीरू हर सूचना क्षण भर में पूरे गांव पहुंचाता | पहले गांव में दसियों बार आग लगने की घटना होती थीं | तब अधिकांश घर कच्चे हुआ करते थे | जरा सी असावधानी से आग लग जाया करती थी | पीरू तुरंत होका लगा देता था और पूरा गांव एकजुट होकर आग बुझा देता था | यह गांव के सूचना प्रबंधन और एकजुटता का ही कमाल था कि आज तक आग से कोई जन हानि नहीं हुई | अब वक्त ऐसा आया है की सारे गाँव को अलर्ट करने वाला पीरू खुद के मकान में आग लगने के बाद निकल कर बाहर भी नहीं आ सका | तब से लेकर अब तक गांव में बहुत कुछ बदला है टी वी आया है , खेती के लिए ट्रेक्टर आए हैं , बिजली आई साथ – साथ सड़क भी आई सड़क से होकर पेप्सी कोका भी आये | पेप्सी के साथ पेप्सिनुमा कल्चर भी आया | हालाँकि जातपात अभी भी है | मगर इसके भी कुछ पेच ढीले हुए हैं | मगर एक चीज़ है जो बिलकुल नहीं बदली वह है गांव के सामूहिक अवचेतन में कहीं गहरे बैठा हुआ एक जज्बा कि जब विपदा आती है तो सबसे आगे रहना चाहिए | उसमे जाति या दूसरे अवरोध रोक नहीं पाते | आग में पानी डाल रहे अनेको मटके और बाल्टियों में अनेक ऐसी हैं जिनको अभी भी पीरू जैसे व्यक्ति को छूने कि छूट नहीं है |लेकिन उस वक्त न बाल्टी रुकी न मटका और न इंसान | कुछ क्षणों के लिए वहां इंसान अपनी विशुद्ध खूबसूरती के साथ मौजूद था | यहाँ एक बात जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है वह यह है कि इस वक्त जो युवक लीडरशिप रोल में उभर कर आगे आया वह गांव का सबसे निखट्टू और वाहियात समझा जाने वाला युवक था | लेकिन जिस प्रकार वह आग में से जलने से बचने के लिए सामान अपनी जान जोखिम में दल कर निकाल रहा था वह देखने लायक था | इसी के फलस्वरूप साथ सटे हुए तीन छप्परो के एक तिनके को भी सेक नहीं लगा | मेरे गांव में यह दृश्य बिलकुल नहीं बदला | रब करे यह दृश्य हमेशा के लिए फ्रीज़ हो जाये |
गांव में कुछ मूल्य हैं जो बिलकुल नहीं बदले हैं | कुछ चीजों में इतना और तेजी से बदलाव आया है कि लगता है कि हमारा मूल्यबोध ही उलट गया है | कुछ चीजों में बदलाव होना बेहद जरूरी है | इसके रस्ते कई हैं | गाँधी वादी भी और मार्क्सवादी भी या कोई और... लेकिन इसकी बुनियाद उसी नब्ज को पकड़ कर रखनी होगी जो वक्त बेवक्त इंसान को इंसान के पास ला खड़ा करती है | जो थोड़ी देर तक यह उद्घोष कर देती है कि जरूरतों के मामले में हम एक से हैं और हमारी विवशताएँ भी एक सी हैं |